नाम (Name) | महर्षि दयानंद सरस्वतीं |
वास्तविक नाम (Real Name) | मूल शंकर तिवारी |
जन्म (Birthday) | 12 फरवरी 1824, टंकारा, गुजरात |
पिता (Father Name) | करशनजी लालजी तिवारी |
माता (Mother Name) | यशोदाबाई |
शिक्षा (Education) | वैदिक ज्ञान |
गुरु | स्वामी विरजानंद |
मृत्यु (Death) | 30 अक्टूबर 1883 |
उपलब्धि (Awards) | आर्य समाज के संस्थापक। ‘स्वराज्य’ का नारा देने वाले पहले व्यक्ति, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया, रुढ़िवादी सोच को बदला और कई कुरीतियों को मिटाने की कोशिश की। |
स्वामी दयानंद का प्रारंभिक जीवन
एक सच्चे देशभक्त और महान समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में एक समृद्ध ब्राहमण परिवार में जन्मे थे।
जिनके बचपन का नाम मूलशंकर अंबाशंकर तिवारी था। और उनके पिता जी का नाम करशनजी लालजी तिवारी था। जो कि एक समृद्ध नौकरी पेशा थे, उनके पिता टैक्स-कलेक्टर होने के साथ-साथ एक अमीर समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। इसके साथ ही वे शैवमत के कट्टर अनुयायी भी थे।
दयानंद जी की माता का नाम यशोदाबाई था, जो कि एक घरेलू महिला थी। आपको बता दें कि स्वामी दयानंद जी के एक संपन्न परिवार में जन्मे थे, इसलिए उनका बचपन ऐश और आराम के साथ बीता।
स्वानी दयानंद जी बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्ति थे। जिन्होंने महज 2 साल की आयु में ही गायत्री मंत्र का शुद्ध उच्चारण करना सीख लिया था।
इसके साथ ही आपको बता दें कि स्वामी दयानंद जी के परिवार में पूजा-पाठ और शिव-भक्ति का धार्मिक माहौल था। जिसका असर स्वामी दयानंद जी पर भी पड़ा और धीरे-धीरे उनके मन में शिव भगवान के प्रति गहरी श्रद्धा पैदा हो गई।
आगे चलकर एक पंडित बनने के लिए स्वामी दयानंद जी ने बचपन से ही वेदों-शास्त्रों, धार्मिक पुस्तकों और संस्कृत भाषा का मन लगाकर अध्यन किया।
वहीं उनके जीवन में एक घटना हुई, जिन्होंने हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए मजबूर कर दिया। फिर इसके बाद उनकी जिंदगी पूरी तरह ही बदल गई।
वो घटना, जिसके बाद बदल गई स्वामी जी की जिंदगी
स्वामी जी के पिता की शंकर भगवान में गहरी आस्था जी इसलिए अक्सर वे धार्मिक अनुष्ठानों में लगे रहते थे। वहीं स्वामी दयानंद जी भी अपने पिता के साथ इन पूजा-पाठ में शामिल होते थे।
वहीं एक बार जब शिवरात्रि के दिन स्वामी जी के पिता ने उन्हें शिवरात्रि के दिन का महत्व बताते हुए उनसे उपवास रखने के लिए कहा, जिसके बाद स्वामी जी ने व्रत रखा और रात्रि जागरण के लिए वे शिव मंदिर में ही पालकी लगाकर बैठ गए।
इस दौरान स्वामी जी ने देखा कि चूहों का झुंड भगवान की मूर्ति को घेरे हुए है और सारा प्रसाद खा रहे हैं। तब स्वामी दयानंद जी के बालमन में सवाल उठा कि भगवान की मूर्ति वास्तव में एक पत्थर की शिला है जब ईश्वर अपने भोग की रक्षा नहीं कर सकते हैं तो वह हमारी रक्षा कैसे करेंगे।
इस घटना का स्वामी दयानंद जी के जीवन में गहरा प्रभाव पड़ा और उनका मूर्ति पूजा से विश्वास उठ गया।
गुरु श्री विरजानंद बने स्वामी दयानंद सरस्वती के गुरु
इस तरह वे अध्यात्मिक अध्ययन के लिए मथुरा में स्वामी विरजानंद जी से मिले और जहां स्वामी जी ने उनसे योग विद्या एवं शास्त्र और आर्य ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया।
ज्ञान प्राप्ति के बाद जब गुरु दक्षिणा देने की बात आई तब उनके गुरु विरजानंद जी ने गुरुदक्षिणा के रुप में उनसे समाज में फैली कुरीति, अन्याय, और अत्याचार के खिलाफ काम करने और आम लोगों के बीच जागरूकता फैलाने के लिए कहा।
इस तरह उनके गुरु ने उन्हें समाज के कल्याण का रास्ता बता दिया जिसके बाद आगे चलकर उन्हें समाज में कई महान काम किए और अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा विरोध किया यही नहीं देश को आर्य भाषा अर्थात हिंदी के प्रति जागरूक किया, जिसकी वजह से आज भी हम स्वामी दयानंद सरस्वती जी को याद करते हैं।
आर्य समाज की स्थापना
परोपकार, जन सेवा, ज्ञान एवं कर्म के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए महान समाज सुधारक दयानंद सरस्वती जी ने गुड़ी पड़वा के दिन 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। वहीं स्वामी जी का यह कल्याणकारी ऐतिहासिक कदम मील का पत्थर साबित हुआ।
आपको बता दें कि इसका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक और सामाजिक उन्नति करना था। ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी जिससे कई महान विद्धान प्रेरित हुए, तो दूसरी तरफ स्वामी जी के आलोचक भी कम नहीं थे, कई लोगों ने इसका विरोध भी किया लेकिन दयानंद सरस्वती जी के तार्किक ज्ञान के आगे वे टिक नहीं सके और बड़े-बड़े विद्दानों और पंडितों को भी स्वामी जी के आगे सिर झुकाना पड़ा।
इसके अलावा उन्होंने विद्धानों को वेदों की महत्वता के बारे में समझाया। दयानंद सरस्वती ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को दोबारा हिन्दू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। वहीं साल 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की थी। जिससे हिन्दू समाज में जागरूकता फैली।
स्वामी दयानंद जी की मृत्यु
साल 1883 में स्वामी दयानंद सरस्वती जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह के पास गए। इस दौरान स्वामी जी ने अपने महान विचारों से राजा को कई व्याख्यान भी सुनाए, जिससे राजा काफी प्रभावित हुए और उनका बहुत आदर सत्कार किया।
तब राजा यशवंत सिंह के संबंध एक नन्ही जान नाम की नर्तकी के साथ थे। जिसे देखकर स्वामी दयानंद जी ने राजा यशवंत सिंह जी को बड़ी विन्रमता से इस अनैतिक संबंध के गलत और आसामाजिक होने की बात समझायी और कहा कि एक तरफ आप धर्म से जुड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ इस तरह की विलासिता से आलिंगन है ऐसे में ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।
वहीं स्वामी जी के नैतिक ज्ञान से राजा की आंखे खुल गईं और उन्होंने नन्ही जान से अपने रिश्ते खत्म कर दिए।
वहीं राजा से संबंध टूटने की वजह से नर्तकी नन्ही जान इस कदर नाराज़ हुई कि उसने स्वामी जी की जान ले ली।
क्रोधित नन्ही जान ने रसोईये के साथ मिल कर स्वामी दयानंद सरस्वती के भोजन में काँच के बारीक टुकड़े मिलवा दिए। उस भोजन को ग्रहण करने के बाद स्वामीजी की तबीयत खराब होने लगी। वहीं जांच पड़ताल होने पर रसोइये ने अपना गुनाह कुबूल कर लिया और तब विराट हृदय वाले स्वामी दयानंद सरस्वती नें उसे भी क्षमा कर दिया।
इस घटना से स्वामी जी बच नहीं पाए। उन्हे इलाज के लिए 26 अक्टूबर के दिन अजमेर लाया गया। लेकिन 30 अक्टूबर के दिन उनकी मौत हो गई।